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________________ सायोपिया स्वरूप - श्री श्रुतसामरसूरि के अनुसार नेगमादि सातों नयों का स्वरूप इस प्रकार है 1. नैगम - जो एक द्रव्य या पर्याय को ग्रहण नहीं करता इस विकल्प रूप हो वह निगम है और निगम का __ भाव नैगम है । संकल्पमात्रग्राही नैगम नय कहलाता है। 2. संग्रह - अभेद रूप वस्तु के ग्रहण करने को संग्रह नय कहते हैं। 3. व्यवहार - संग्रह नय से गृहीत अर्थ को भेद रूप से ग्रहण करना व्यवहारनय है। 4. ऋजुसूत्र - ऋजु का अर्थ सरल है। जो ऋणु अर्थात् सरल को सूचित करता है अर्थात् स्वीकार करता है, वह ऋजुसूत्र नय है। 5. शब्द - शब्द से, व्याकरण से, प्रकृति प्रत्यय द्वार से सिद्ध शब्दनय है ह . 6. समभिरूढ - परस्पर अभिरूड समभिरूट नय है। 7. एवंभूत - क्रिया की प्रधानता से कहा जाय, वह एवंभूतनय है।' भात पकाने की तैयारी करने वाले को भात पकाने वाला कहना, द्रव्य कहने से सभी जीव-अजीव द्रव्यों का ग्रहण करना, द्रव्य के छ: भेद करना, वर्तमान पर्याय को ही ग्रहण करना, दार-भार्या-कलत्र एकार्थक होने पर भी लिंग भेद से भिन्न मानना, इन्द्र-शक्र-पुरन्दर में भिन्नार्थकता होने पर भी रूढि से एक अर्थ का ग्रहण करना तथा जब जो जिस अवस्था में हो उसे तब वेसा ही कहना उक्त सातों नयों में पाया जाता है। ये सालों नय क्रमश: उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषय वाले हैं तथा इनमें पूर्व-पूर्व नय की उत्तर-उत्तर नय के प्रति कारणता है । अत: इनके क्रम को इसी प्रकार कहा जाना सहेतुक है। मबम्बार्षिक और पांचाविक होते. गुणार्षिक नहीं ___आचार्य अकलकदेव ने कहा है कि द्रव्य के सामान्य और विशेष ये दो हो स्वरूप हैं। सामान्य, उत्सर्ग, अन्वय और गुण ये एकार्थक शब्द हैं। विशेष, भेद और पर्याय ये एकार्थक शब्द हैं। सामान्य को विषय करने वाला सम्यार्षिकमब है मार विशेष को विषय करने वाला पर्यायार्षिक नय । दोनों से समुदित मयुतसिडस्प तय है। माता जब मुज को व्रब का ही सामान्य रूप माना गया है तब उसके ग्रहण करने के लिए व्यार्षिक नय से मिन गुणार्षिक नव मानने की कोई मावस्यकता नहीं है। क्योंकि नय विकलादेशी है और समुदाय रूप द्रव्य सकलादेशी है । अत: समुदाय रूप द्रव्य तो प्रमाण का विषय है, नय का नहीं । आचार्य अकलंकदेव ने दुमयसबाहः प्रमाणम्' कहकर यह पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों का संग्रह प्रमाण है। १. तत्वार्थवृत्ति, घुतसागरसूरि,1/13. पृ. 165 २. तत्वार्यवार्तिक 5/38/3 ३. वही, 1/1/
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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