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________________ ( १६ ) करने का साहस ही नहीं रखते, वैसा करने में बहुषा लज्जा और संकोच अनुभव करते हैं, परिणाम स्वरूप भले ही वह अपनी साहित्य साधना को त्याग 1 दें, गौरण अथवा शिथिल कर दें । बहुभाग जैन लेखक अपनी साहित्यिक अभिरुचि, साहित्य अथवा समाज सेवा की लगन या धार्मिक श्रद्धा के वंश होकर अथवा केवल स्वान्त सुखाय ही लिखते । उनकी साहित्य साधना मे कोई आर्थिक प्रयोजन प्राय. रहता ही नहीं, विशेषकर इसी कारण से क्योंकि वह दुष्कर है, लोकमत उसके अनुकूल नही है और क्योकि वैसा करने में अपनी मान हानि के सिवाय और कोई लाभ नही दीखता । इन जैन 'लेखकों का कोई सगठन नही है, कोई आवाज नही है । वे जो कुछ लिखते हैं उसके लिये बदले मे कुछ इच्छा या आकाक्षा न रखते हुए भी उसका प्रकाशन कराने में भी बडी कठिनाई का सामना करना पडता है। एक व्यक्ति अपने जीवकोपार्जन के प्रयत्न को बाधा पहुचा कर अथवा उसके समय मे से ही जो कुछ अवकाश मिले उसमे तथा अपने स्वास्थ्य की परवाह न करके और आराम को तिलांजली देकर स्वयं ही सर्व साधन सामग्री जुटाये और परिश्रम तथा आवश्यक द्रव्यादि व्यय करके कोई पुस्तक लेखादि तैयार करे और फिर सामर्थ्य हो तो स्वय ही उसे प्रकाशित भी कराये तथा हो सके तो अमूल्य ही वितरण भी करदे, बर्न अपनी पांडुलिपि को देख देख कर खुश हुआ करे । श्रथवा वह किसी व्यवसायिक प्रकाशक या साहित्यिक सस्था, किसी धार्मिक या सामाजिक सभा सोसाइटी, अथवा किसी घनी मित्र अथवा रिश्तेदार की खुशामद करे । सम्भव है कि इस प्रकार उसकी रचना प्रकाशित हो जाय और यह भी सम्भव है कि सर्व प्रयत्नी के बाबजूद भी वह प्रकाशित न हो । प्रकाशित होने पर उसे पुरस्कार या वारिश्रमिक मिलने की बात तो दूर है, यदि प्रोत्साहन और प्रशसा के दो शब्द तथा सूखा धन्यवाद मिल जाय तो बहुत है । जैन लेखक के लेख का मूल्य, चाहे वह लेख किसी कोटि का क्यो न हो, अधिक पत्रकार किसी भी # अधिक अपने पत्र के उस यु‌ग न हम्रा है, एक प्रति समझते हैं -
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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