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________________ सबका मूल्य प्रायः धर्मादे की रकम मे से दे दिया जाता है। किंतु इन मुस्तकों और पत्र पत्रिकाओं में से अल्पाश का भी कोई उपयोग वे श्रीमान अथवा उनके परिवार का कोई व्यक्ति शायद ही करता हो। ये चीजे प्रायः कालतूमद और रद्दी की टोकरी के उपयुक्त समझ ली जाती हैं-उन्हें बिना देखे और पढे ही, हजार हजार, और दो दो हजार की जैन जनसख्या बाले स्थानो में भी दो चार से अधिक ऐसे व्यक्ति न मिलेंगे जो मूल्य देकर जैन पत्र पत्रिकाएं और जैन साहित्य मगाते हों। कितनी भी उच्च कोटि की पुस्तक हो अधिक से अधिक एक हजार छपती हैं और वही सस्करण वर्षों के लिये पर्याप्त होता है, दूसरे सस्करण की नौबत ही नहीं पाती । अत्यन्त उच्चकोटि की पत्रिकाए निकल रही है किंतु पाच छ सौ से अधिक किसी की भी ग्राहक सख्या शायद नही है । साप्ताहिक पत्रो मे से दो एक की एक हजार से कुछ ऊपर भले ही हो । इसमे दोष प्रकाशकों और पत्र सम्पादको आदि का भी है। वे स्वय अपने साहित्य और पत्रों के व्यापक प्रचार के लिये प्राय कुछ भी सुव्यवस्थित उद्योग नही करते । इन्ही सब कारणो से जैन पुस्तक प्रकाशन, जैन पुस्तक विक्रय तथा जैन सामयिक पत्रो का व्यवसाय बहुत ही कम सफल और लाभदायक हो पाता है । अतएव व्यावसायिक जैन प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता और पत्रकार अत्यल्प सख्यक है। जैन लेखकों की दशा :-जैन लेखको की दशा और भी बुरी है । जैन समाज मे विद्वानो, और अच्छे उच्चकोटि के लेखको की भी कोई कमी नही है, किंतु उपरोक्त परिस्थितियो मे कोई भी जैन विद्वान या लेखक निराकुलता पूर्वक साहित्य साधना नही कर सकता और न उसके द्वारा अपना और अपने परिवार का निर्वाह ही कर सकता है। अधिकतर लेखक तो अपनी कृतियो के लिए किसी प्रकार के पारिश्रमिक को प्राप्त करने का विचार ही नही करते, और यदि कोई कोई वैसा विचार भी रखते हैं और उसकी पावश्यकता अनुभव करते हैं तो वे उन्हें प्रकट करने का अथवा पारिश्रमिक की माग
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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