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________________ जैन पुस्तकों और पत्र पत्रिकामो को क्रय करके संग्रह करने की मावश्कता नहीं। समझी जाती, बल्कि सस्ते, जासूसी, ऐयारी, घटना प्रधान अथवा रोमांचक उपन्यास कहानियो के ही संग्रह को विशेष महत्त्व दिया जाता है। ...? जैन साहित्य के स्वरूप का सम्यक् प्रचार न होने से नवयुवक विद्यार्थी . वर्ग तथा पठनाभिरुचि रखने वाले वयस्क व्यक्ति भी पहले से ही यह मान बैठे हैं कि पठन क्रमान्तर्गत विषयो की दृष्टि से, लौकिक ज्ञानवर्द्धन की दृष्टि से, जीवन सम्बधी दैनिक आवश्यकताओ की दृष्टि से अथवा मनोरंजन की दृष्टि से जैन साहित्य एक निरर्थक-बेकार की वस्तु है, उसका पदि कोई मूल्य है तो केवल धार्मिक है सो भी श्रद्धालुओं के लिये ही । और एक अौसतं व्यक्ति वास्तव मे इस दृष्टि को कोई विशेष महत्त्व नहीं देता, जो कुछ महत्त्व देता है वह रिवाजन या लिहाजन अथवा नाम और पुण्य दोनों एक साथ कमाने की ही नियत से देता है। किन्तु वास्तविकता तो यह है कि जैन साहित्य में किसी भी अन्य साम्प्रदायिक साहित्य की अपेक्षा-और पुरातन भारतीय साहित्य का अधिकाश किसी न किसी सम्प्रदाय से ही सम्बन्धित है-उपरोक्त लोकतत्वो का बाहुल्य ही पाया जाता है । उसकी सहायता से पठनक्रमान्तर्गत अधिकाश विषयो को भी सद्धित किया जा सकता है। यहा तक कि उसके गूढ सैद्धान्तिक एव दार्शनिक मन्तव्यो की भी कैसी समयानुसारी, लौकिक एव व्यावहार्य व्याख्या की जा सकती है यह बात भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से हाल में ही प्रकाशित तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर महेन्द्रकुमार जी द्वारा लिखित तत्त्वार्थवृत्ति की प्रस्तावना मे 'सम्यग्दर्शन' के विवेचन से सहज अनुमानित की जा सकती है। किन्तु जैन साहित्य के लोकरूप का अभी प्रचार ही नही हुमा, यद्यपि वर्तमान जैन पत्र-पत्रिकामो तथा नब प्रकाशित जैन साहित्य मे पर्याप्त मात्रा मे उपलब्ध हैं, पर उसे खरीद कर पढ़नेवालो का अभाव है । जैन समाज में अनेको श्रीमान ऐसे हैं जिनके यहाँ बहुभाग जैन पत्र-पत्रिकाएं पहुंचती रहती है प्रकाशित जैन पुस्तकें भी पर्याप्त मात्रा में पा जाती हैं, उन
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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