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________________ ( १६ ) पर दिया जाता है कि विकसित जैन सस्था जैनत्व की प्रभावना के लिए ही विद्यमान है, जैन धर्म, सस्कृति और साहित्य की अथक सेवा करना ही उनका व्रत है अत जैनो का कर्तव्य है कि उसके लिए यथा शक्य द्रव्य दान देकर विद्या दान का पुण्य लूटें । किन्तु यह सब वाग्जाल और धोका है, इन सस्थाओ मे से प्राय किसी ने भी अब तक कम से कम अपनी ओर से जैन साहित्य और संस्कृति की कुछ भी सेवा नही की है । उनसे जैन साहित्य के लौकिक अश के भी पठन पाठन और प्रकाशन को कोई प्रोत्साहन नही मिला है । जो जैन संस्कृत विद्यालय है उनसे भी जैन साहित्य के सवर्धन मे विशेष सहायता नही मिल रही है, उनके कुछ फुटकर स्नातक व्यक्तिगत रूप से जैन साहित्य की अवश्य ही प्रशसनीय सेवा कर रहे है, पर वह अति सीमित और raiगी ही है । जैन समाज मे कई एक परीक्षा बोर्ड है, किन्तु उनके पठनक्रम बहुत सीमित और रूढ है, उनके वैकल्पिक विषय अत्यल्प संख्यक है, इतिहास पुरातत्त्व और संस्कृति जैसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय भी उनमे सम्मिलित नही है, तुलनात्मक अध्ययन की कोई व्यवस्था नही है । इसके प्रतिरिक्त उनके अधिकारीगण जो जैसी पुस्तके उपलब्ध है उन्ही को अपने पठनक्रम मे रखकर सतोष कर लेते है । पठनक्रम के उपयुक्त नवीन पुस्तको के निर्माण कराने में वे प्रवृत्त ही नही होते । जैन साहित्य का. बाह्य जैनेतर समाज में सम्यक् प्रचार करने की जैनो की दिली प्रवृत्ति ही प्रतीत नही होती अतएव उसके लिए उपयुक्त साधन भी नही जुटाये जाते । कितना ही सुन्दर, लोकोपयागी या लोकरजक तथा प्रमाणीक प्रकाशन हो, सार्वजनिक पत्र पत्रिकाओं मे उसके विज्ञापन, समालोचनए आदि निकलवाने की ओर कोई ध्यान नही दिया जाता । श्रजैन उसे एक साम्प्रदायिक रचना मान कर उपेक्षणीय समझते है और जैन उसे दूसरो को दिखाने की आवश्यकता नही समझते । देश मे यत्र तत्र अनेक सार्वजनिक जैन पुस्तकालय एवं वाचनालय भी खुलते जा रहे हैं, किन्तु उनमे भी जैन कालिजो और स्कूलो आदि की भांति
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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