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________________ । २० ) का एहसान ही करते हैं। चाहे कितना ही महत्त्व पूर्ण लेख हो उसकी पतिरिक्त प्रतियाँ लेखक को प्रदान करने की तो प्रथा ही नही है, लेख की पहुच या स्वीकृति की सूचना देने अथवा अस्वीकृत होने पर उसे लौटा देने की तो मावश्यकता ही नही समझी जाती । आर्थिक प्रतिदान की प्राशा न होने से लेखक व्यय साध्य सामग्री के सकलन एव उपयोग द्वारा अपनी रचनामो को यथोचित प्रमाणीक, उपयोगी एव आकर्षक भी नही बना पाता। जैन समाज मे साहित्य की शोध, खोज एव निर्माण करने कराने वाली कई एक अच्छी सस्थाएं भी विद्यमान हैं जो प्रायः सार्वजनिक अथवा सामाजिक द्रव्य की सहायता से संचालित हो रही हैं और जिनके सचालन मे कोई प्रार्थिक अथवा व्यवसायिक प्रयोजन नही है । किन्तु क्योकि वे स्वय इस दृष्टि से शून्य सी हैं अतः जिन विद्वानों से वे साहित्य सजन कराती है उन्हे भी स्वत. इस दृष्टि से शून्य ही मान लेती हैं । ऐसी अवस्था मे सुलेखको का पर्याप्त सख्या मे सद्भाव होना और उच्च कोटि के साहित्य की सृष्टि करना दुष्कर व दुस्साध्य है, यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है । तथापि जब प्रकाशित हो चुके तथा हो रहे जैन साहित्य पर दृष्टि जाती है तो वह किसी भी अन्य भारतीय सम्प्रदाय अथवा समाज के साहित्य की अपेक्षा मात्रा मे भी कम नही है और किसी अंश मे भी निम्नतर कोटि का नहीं है तथा लोकतत्त्व की प्रचुरता भी उसमे अपेक्षाकृत पर्याप्त मात्रा में है। इसका कारण यह है कि जैन समाज मे साक्षरो और शिक्षितो की संख्या एक पारसी समाज को छोड कर सर्वाधिक है, और उसकी सामान्य दशा भी इतनी समृद्ध अवश्य है कि नितान्त भूखे और दरिद्री इसमे बहुत थोड़े है। धार्मिक साहित्य सुजन अधिकतर धार्मिक भावना के वश ही किया और कराया जाता है । व्यवसायिक प्रकाशको और पुस्तक विक्रेताओ के अतिरिक्त अनेक अव्यवसायिक साहित्यिक सस्थाए, ग्रन्थ मालाए, ट्रस्ट आदि तथा स्थानीय पचायतें, बार्मिक सामाजिक - - - - श्री रुष जो शानदान वा शास्त्रदाने - रूप से भी पुस्तके प्रका
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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