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________________ ↑ ( ३ ) महती अभिवृद्धि हुई और तैलगु, मलयालम्, मराठी, उडिया, बगाली, बिहारी गुरुमुखी आदि प्राय प्रत्येक प्रान्तीय भाषा मे अल्पाधिक जन साहित्य उपलब्ध है । आधुनिक देसी भाषाओ की जननी प्रपत्र श पर तो जैनो का प्राय स्वाधिकार सा रहा ही था, हिन्दी की भी प्राचीनतम ज्ञात एव उपलब्ध रचनाए जैनो की ही प्रतीत होती हैं। पुरातन हिन्दी के गद्य-पद्य साहित्य का एक बड़ा प्रश जैन प्रणीत है, और वह कोई साधारण अथवा उपेक्षणीय कोटि का भी नही है । व्यापार की प्रधान सकेत लिपि 'मु ंडिया' में एकमात्र साहित्यिक रचना अभी जैनो की ही उपलब्ध है । इसके अतिरिक्त उर्दू, फारसी, अगरेजी, जर्मन, फ्रेन्च, इटालियन आदि भाषाओ मे भी जैन साहित्य विद्यमान है । जहा तक लेखन शैली का प्रश्न है, जैन साहित्यकारो ने विभिन्न भाषात्रो की गद्यपद्यमयी अनेक नवीन शैलियों का श्राविष्कार किया और प्राय. सर्व ही प्रचलित शैलियों को अपनाया एव विकसित किया। मुक्तक एव स्फुट काव्य, खण्ड काव्य, महा काव्य, नाटक, चम्पू, आख्यान उपाख्यान, चारित्र पुराण, ऐति हासिक कल्पित, घटनात्मक, नीत्यात्मक, वर्णनात्मक अथवा भावात्मक, सूत्र, वृत्ति, वार्तिक, निर्युक्ति, चूरिंग, टीका टिप्पणि, भाष्य व्याख्या, वैज्ञानिक विवेचन, से युक्त निबंध प्रबंध, रासा विलास, ढमाल चोपई, स्तुति स्तोत्र, पद भजन प्राय सर्व ही प्राचीन अर्वाचीन शैलियों मे रचनाए की तथा विभिन्न प्रचलित एव नवीन छन्दो, रस अलकार आदि का सफल प्रयोग किया । आधुनिक जैन साहित्यकार भी वर्तमान मे प्रचलित सभी शैलियों का सफल प्रयोग कर रहे है । यद्यपि जैन साहित्य की सृष्टि मे प्रधानतया धार्मिक प्रकृति ही कार्य करती रही है तथापि उसके सृजको ने उसे लोकरजक एव लोकोपयोगी बनाने का भी यथाशक्य प्रयत्न किया और वे इसमे सफल भी हुए । भाषा एवं शैली के सुचारू एव उपयुक्त चुनाव के द्वारा उन्होने अत्यन्त शुष्क एव नीरस विषयो और प्रसगो को भी रुचिकर, पठनीय, सुबोध एव सर्व ग्राह्य बनाने का प्रयत्न किया । जैन श्रमण संस्कृति निवृत्ति प्रधान है, अतएव स्वभावत उसके साधको एव उपासको द्वारा निर्मित साहित्य सामान्यत वैराग्यमयी, चारित्र प्रवण और
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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