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________________ शास्त्र भंडार तथा अन्य साहित्यिक एव लोकोपकारी सस्थाए सुव्यवस्थित और सुचारू रूप से संचालित है । धर्म वैशिष्टय और सस्कृति वैशिष्टय के रहते हुए भी जैन समाज ने सदैव से अपने आपको अखिल भारतीय समाज एव भारतीय राष्ट्र का अविभाज्य अग समझा है और आज भी समझती है । जैन हिन्दू है था नही इस सम्बन्ध मे जो मतभेद है उनका कारण धर्म वैभिन्य ही है । धार्मिक एव तत्सबधित सास्कृतिक परम्परा की दृष्टि से जैन अवश्य ही हिन्दू नही हैं किन्तु राष्ट्रीयता एवं भारतीयता की दृष्टि से वे हिन्दू ही है इसमे कोई सदेह नही । उनका धर्म, सस्कृति और वे स्वय प्राचीन काल से भारत के ही मूलत. शुद्ध अधिवासी रहे है । वे यही जन्मे और फले फूले है । वे भारत के ही है और भारत उनका है। जैन साहित्य-एक अत्यन्त प्राचीन काल से चली आई देश व्यापी संस्कृति के रूप मे जैन सस्कृति ने अखिल भारतीय संस्कृति की धर्म, दर्शन, साहित्य, कला, विज्ञान, राजनीति, समाज-व्यवस्था, रीति रिवाज एव आचारविचार इत्यादि विविध शाखाप्रो को अनगिनत, अमूल्य एव स्थायी महत्व की देनें प्रदान की हैं । ज्ञान सवर्द्धन एव साहित्य निर्माण के क्षेत्र मे ही जैनो ने प्राचीन व अर्धाचीन विभिन्न भारतीय भाषाओ मे विविध विषयक विपुल साहित्य का सृजन करके, भारती के भडार को सुसमृद्ध एव समलकृत किया है। संस्कृत साहित्य को जैन विद्वानो की देने साधारण नहीं है, किन्तु उन्होने प्राचीन काल से प्राकृत एव तत्पश्चात् अपभ्र श जैसी अपने-अपने समय की लोक भाषाप्रो को विशेषकर इसी कारण अपनाया और साहित्य का माध्यम बनाया जिससे कि सर्व साधारण उक्त रचनामो का लाभ उठा सके । इसी उद्देश्य को लक्ष्य बनाते हुए उन्होने विभिन्न प्रान्तीय, देसी भाषामो मे ग्रथ रचनाए करके उक्त भाषाम्रो के विकास मे अत्यधिक महत्त्वपूर्ण योग दान दिया। तामिल भाषा के प्राचीन 'सगम' साहित्य का पर्याप्त एव श्रेष्ठतर भाग जैन विद्वानो की ही कृति है, और कनाडी भाषा का तो तीन चौथाई से अधिक साहित्य जैनो द्वारा ही निर्मित हुआ है। गुजराती एव राजस्थानी भाषामो के साहित्य की जैनो द्वारा
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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