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यह भी निश्चय किया गया कि जैनियोकी साहित्य सेवाको प्रदर्शित करनेवाली एक अच्छी प्रभावक भूमिका भी साथ में रहे, जिससे इस पुस्तक की उपयोगिता बढ जाय । तदनुसार ही वीरसेवामन्दिर मे उक्त सूची पर नयेकार्डीकरणादि द्वारा सम्पादन कार्य हुआ, जिसके फल स्वरूप उसे वर्त्तमान रूप प्राप्त हुआ है और उसमें सामयिक पत्रो तथा भाषगो के अतिरिक्त लगभग साढे छह सौ ग्रन्थो का नई वृद्धि हुई है-उर्दू, मराठी, गुजराती, बगला श्रीर अग्रेजी की तो सभी पुस्तके गई प्रविष्ठ की गई है ।
बा० ज्योतिप्रसाद जी का कार्य-काल वीरसेवामन्दिर में ३१ जुलाई १६४७ तक रहा। अपने इस द गहीने के कार्यकाल मे उनका अधिकांश समय प्रस्तुत सूची के सम्पादन मे ही व्यतीत हुआ, जिसे ६-७ महीने का पूरा समय कहा जा सकता है। जुलाई के अन्त मे जैसे-जैसे भूमिका का कार्य पूरा होकर सूची का सम्पादन कार्य समाप्त हुआ। अपने इस सम्पादन कार्य मे, जिसमें वीरसेवामन्दिर के दूसरे विद्वानो प० परमानन्द जी शास्त्री तथा न्यायाचार्य प० दरबारी लालजी का भी कुछ महयोग प्राप्त होना रहा है, सम्पादक जी कहाँ तक सफल रहे उसे विज्ञपाठक स्वयं समझ सकते हैं ।
सूची का सम्पादन समाप्त होनेसे पहले ही सयोजक जी का उसके शीघ्र छाने की चिन्ता, जम उन्होने अनेक पुस्तक प्रकाशको स पत्र व्यवहार क्रिया -- बडौदा के प्रोस्विटल इन्स्टिट्यूट, इलाहाबाद ल जर्नल कम्पनी, डा० मानाप्रमादती गुप्त और इलाहाबाद के रायसाहब रामदयाल जी प्रवाल तक को पुस्तक प्रकाशन के लिये प्रेरा की गई, परन्तु कही से भी सफलता प्राप्त नही हुई— सभी ने अपनी अपनी परिस्थतियों के वश छपान मे असमर्थता व्यक्त की । उस समय कागज का भी बडा अकाल था, सारे देश मे उसका सकट व्याप्त था और कागज के सरकारी कोटे की भरी ट थी, इसी से प० नाथूराम जी प्रेमी ने उन्हे बम्बई में लिखा था कि ' प्रकाशित करने के लिए में किसे बनाऊँ । इस समय तो शायद ही कोई छापने को तम्पार हो ।" वीरसेवामन्दिर को कागज का कोटा बहुत ही कम प्राप्त