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या मीर कोटे से अधिक कागज दूसरे मत से भी खरीद कर नही लगाया. सकता था, यह बडी दिक्कत दरपेश थी और इसलिये मैंने सयोजकजी-को लिख दिया था कि 'ऐसी हालत में यदि प्राप किसी दूसरे प्रकाशक से इसे प्रकाशित करना चाहें तो उसमे अपने को कोई खास आपत्ति नही हो सकती ।'
इस तरह प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रकाशन जो उस समय रुका तो वह अनेक परिस्थितियों के वश श्रमें तक रूका ही पड़ा रहा। वीरशासनसघ कलकत्ता के मंत्री बा० छोटे लाल जी के पास भी यह दो एक वर्ष प्रकाशन की वाट जहता हुआ पा रहा । कलकत्ता से ग्रन्थ की प्रेस कापी वापिस आने पर सयोजक जी जैनमित्रमंडल दिल्ली के मंत्रियो बा० महतावसिहजी बी० ए० मौर बा० प्रादीश्वरप्रसाद जी एम० ए० से इस ग्रंथ को मंडल से छपाने की अनुमति प्राप्त करने में ही नही किन्तु उसे प्रेस को दे देने मे भी सफल हो गये, और इम तरह इस ग्रंथ के दुर्भाग्य का उदय समाप्त हुआ, यह बड़ी खुशी की बात है और इसके लिये जैन मित्र मंडल और उसके उक्त दोनो मंत्री विशेष धन्यवाद के पात्र हैं । बा० पन्नालालजी का सम्बन्ध जैन मित्र मंडल से बहुत पुराना है, आप कई वर्ष तक उसके सहायक मत्री रहे है और आप के उस मत्रित्व काल मे जैनमित्रमंडल चमक उठा था । ऐनी स्थिति मे आपकी एक उपयोगी कृति चिरकाल तक यो ही पडी रहे यह उसे कहाँ तक सहन हो सकता था ग्राविर काल-लब्धि भाई और उसे हो उस पुस्तक को छपाने के लिये विवश होना पड़ा, जिसके छपाने में वह भी पहले उपेक्षाभाव दर्शा चुका था ।
इसके आयोजनादि - सम्बन्धी की कुछ रोचक कथा ।
मुझे इस पुस्तक के प्रसे मे जाने का हाल उस समय मालूम पडा जब कि ५-७ फार्म ही छपने को बाकी रह गये थे । यदि प्रेसमे जाने से पहले मुझसे इस विषय में परामर्श कर लिया गया होता तो उसमे कितना ही सुधार हो जाता - कम से कम मुद्रणकला की जो खटकन वाली त्रुटिया पाई जाती है