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एम० ए० लखनऊपे भी पत्रव्यवहार किया, जिन्हे हाल मे पी एच० डी० की
उपाधि भी प्राप्त हो गई है, और उन्हें सूचीके सम्पादन की प्रेरणा का, ' जिसके उत्तर मे उन्होने अपने ४ अप्रेल १९४६ के पत्र मे लिखा कि "हिन्दी
सूची भी में मम्पादन करदूगा आप मगालें।" इस स्वीकृति के अनुसार वह सूची उन्हे बनारस से भिजवादी गई और उन्हें ११ अप्रेल को मिल गई, जिसकी पहुंच के पत्र तथा बाद के भी कुछ पत्रो मे उन्होने सूची के सम्पादन की कुछ कठिनाइयो तया अपने इकले की असमर्थतादि का उल्लेख करते हुए मुझ स परामर्श करने तथा वीर सेवामन्दिर की मार्फत इस कार्य के सम्पन्न होने आदि का सुझाव रक्खा । फलतः इस मंथसूची पर उस वक्त तक कोई खास काम नहीं हो सका जब तक कि श्री ज्योतिप्रसादजी की नियुक्ति १ ली अक्त वर १९४६ को वीर सेवामन्दिर मे नही हो गई।
मुझे उक्त सूची की स्थिति प्रादि का पहले से कोई विशेष परिचय नही था, और इस लिये यह समझ लिया गया था कि बा. ज्योतिप्रसाद जी. * जिन्होने सूचीका सम्पादन स्वीकार किया है, अपने अवकाशके समयो मे उस काम को भी करते रहगे, तदनुसार ही उन्हें उसकी याददिहानी करा दी गई, परन्तु वैसा कुछ नही हो सका । साथ ही, यह मालूम पड़ा कि सूची में कितना ही सशोधन, परिवर्तन और परिबर्द्धन किया जाने को है। प्रतः पाफिस वर्क के रूप मे इस कार्य सम्पादन के लिए बाबू ज्योतिप्रसाद जी की खास तौर , योजना की गई और कार्य की रूप-रेखा भी प्राय निर्धारित कर दी गई । उस वक्त तक वह सूची कोष्ठको के रूप मे थी, मकारादि कम से अथ उसमे जरूर दिये थे परन्तु वह क्रम बहुधा कोश-क्रम के अनुसार ठीक नही था-कितने ही ग्रन्थ आगे पीछे लिखे हुए थे, कुछ दोबारा तिबारा प्रविष्ट हो गये थे, बहुत से अन्य लिखने से छूट गये थे और कुछ प्रथो का परिचय भी कही कही त्रुटित तथा गलत हो रहा था । इन सब दोषोको दूर करते हुए प्रत्येक ग्रन्थके परिचयको जिनरत्नकोशादि की तरह धाराप्रवाह (running) रूप में एक साथ देने की व्यवस्था की गई और