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(६) प्रो० एच० आर० कापडिया ने भी अपने निबन्धों में उक्त विषय के कुछ अंगों का विवेचन किया है ।
चित्र कला-इन हस्तलिखित प्रतियों पर से लघु चित्रकला (मिनियेचर पेन्टिग) सम्बन्धी सामग्री का पाशिक उपयोग मि० ब्राउन, नवाब तथा अन्य विद्वानो ने किया है। अभी हाल में हमने नागौर के वर्तमान भट्टारक जी के पास, यशोधर चरित्र की १७ वी शताब्दी की एक अति सुन्दर चित्र प्रति देखी थी, जो कि शिकागो विश्व प्रदर्शिनी में भी प्रशसा प्राप्त कर चुकी है। जैन गुहाचित्रो के सबन्ध मे पुदुकोटा राज्य के श्री एल गणेश शर्मा ने, अपनी पस्तक 'सित्तनवासल जैन गुहा चित्रावली एव चित्रकला' मे उक्त विषय पर अच्छा प्रकाश डाला है । डा० हीरानद शास्त्री ने भी जैन चित्रकला पर लिखा है । सिंगनपुर (रायगढ) आदि की प्रारऐतिहासिक चित्र कला मे भी जैन प्रभाव लक्षित होता है ।x अनेक प्राचीन अर्वाचीन जैन मन्दिरो मे बहुलता से पाये जाने वाले भित्ति चित्र तथा जैन पौराणिक रूपक एव सकेत चित्र भी पर्याप्त सख्या मे उपलब्ध हैं । किन्तु इस समस्त सामग्री के न्यूनाश का भी उपयोग नही हो पाया है।
प्रशस्त्यादि--अधिकतर हस्तलिखित प्रतियो मे उनकी लेखन तिथि दी हुई होती है और उनमे ऐसी काल निर्णायक सामग्री पर्याप्त मात्रा मे होती है जो कि जैन संघ के मध्यकालीन इतिहास के लिये तो अत्यन्त उपयोगी है ही, साथ ही भारत के राजनैतिक इतिहास सबन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाओं के तिथि निर्णय मे तथा ज्ञान तिथियो की पुष्टि करने मे बहुधा उपयोगी सिद्ध हुई है और हो सकती है।
जैन ग्रन्थ प्रतियो मे पाई जाने वाली ये प्रशस्तिये, पुष्पिकाएँ आदि बहुधा तीन प्रकार की होती हैं--(१) ग्रन्थकार द्वारा निबद्ध-जिनमे वह अपने सम्बन्ध
*See Outlines of, Paleography and the Jaina Mss. J. U. B, VI2. VIl 2,
X See Prehistoric Jaina Paintings-). A., X 2, XI,