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________________ ( ८२ ) रूट के प्रसिद्ध 'कैटेलोगस केटेलोगोरम' के सशोधन, सवर्द्धन का कार्य मद्रास विश्वविद्यालय ने अपने हाथ में लिया था और यह योजना थी, कि उक्त सूची में ऐसे सर्व जैन ग्रंथो को भी सम्मिलित कर लिया जायगा जोकि प्राचीन भारत के सास्कृतिक विकास सबधी ज्ञान के लिए उपयोगी है, और यह कि उसमें श्रालाच - नात्मक एव तुलनात्मक विवेचन के उद्धररण भी रहेगे । योजना निस्सन्देह बडी सुन्दर है ! इसकी सहायता से विशाल भारतीय साहित्य के अन्तर्गत जैन साहित्य का अब तक की अपेक्षा कही अधिक पूर्णता एवं यथार्थता के साथ अध्यूयन किया जा सकेगा । यद्यपि इस प्रकार यह क्षेत्र सीमाबद्ध किया जा रहा है, तथापि अभी तक ईडर नागौर, जयपुर, दिल्ली, बीकानेर आदि अनेक स्थानो के महत्त्वपूर्ण शास्त्र भडारो का व्यवस्थित रूप से निरीक्षण ही नही हो पाया है । दक्षिण मे मूड बद्री, हुम्मच, वारंगल, कारकल आदि स्थानो के भडारो के भी, जहाँ कि ढेरो ताडपत्रीय प्रतियां सुरक्षित हैं, प्रमाणीक विवरण तैयार नही हुए है । अपनी प्राचीनता एव प्रमाणिकता के कारण ये सग्रह अध्ययन को विविध शाखा के लिए बहुमूल्य सामग्री प्रस्तुत करेंगे, ऐसी पूर्ण सम्भावना है आमेर, पाटन, पूना, कारजा आदि के भडारो मे सुरक्षित प्राचीन देवनागरी लिपि बद्ध कुछ ग्रन्थ प्रतियाँ १२ वी शताब्दी ( ई० ) तक की है । निश्चित तिथि तथा लेखन स्थान से युक्त ऐसी प्रतियो की एक क्रमबद्ध श्रखला छाँट लेने से नागरी अक्षरो मे, समय के साथ साथ होने वाले क्रमिक विकास का एक कोष्ठक तैयार किया जा सकता है और उसके द्वारा स्व० प० गौरीशकर हीराचन्दा प्रभा तथा बहूलर साहब ने शिलालेखीय प्राधारो पर जो तालिकाये निर्माण की हैं, उनकी पूर्ति हो सकती है । कुछ विद्वानो का ध्यान ऐसी प्रतियो की ओर आकर्षित हो भी चुका है। मुनि पुण्य विजय जी द्वारा लिखित 'जैन चित्र कल्पद्रुम' ( अहमदाबाद १९३५ ) की भूमिका, अक्षर विज्ञान एवं लेखन कला पर एक ठोस देन है, और कम से कम जहाँ तक गुजरात के भडारो मे संग्रहीत प्रतियो का सम्बन्ध है, उक्त विषयो पर अच्छा प्रकाश डालती है ।
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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