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जो कभी न लोचन उलझाते, संसूति की श्यामल अलकों में । पर सदा भूलते रहते चो, भक्तों की पुलकित पलकों में ॥
जिनको न सुला पाती सन्ध्या, जिनको न जगा पाती ऊषा । जिनको है दूषण से भूषण, जिनको हैं भूसा सी भूषा ।।
जो कभी पुजारी की थाली, को भी स्वीकार नहीं करते । जो कमी अनाड़ी की गाली-- को अस्वीकार नही करते ॥
जिनकी सब पर समदृष्टि सदा, सुर पर, नर पर, पशु-कीटों पर । दोनों के जर्जर चिथड़ों पर,
भूपों के रत्न-किरीटों पर ।। अभिमान 'अहिंसा' को जिन पर, है 'सत्य' 'शील' को स्वाभिमान । अब तक 'अपरिग्रह' के मन पर, छाया है जिनका गुण-वितान ।।