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________________ ૬૪ गुणवान वहाँ थे जितने भी वे और अधिक गुणवान हुये । विद्वान वहाँ थे जितने भी, वे और अधिक विद्वान हुये ॥ यों नित प्रभावना करते ही, पूरा वह aware किया । फिर किया भ्रमण, सर्वत्र जनोंने धर्मामृत सोल्लास पिया || 'कचंगला, विहारी थे । करते विहार यो पहुँचे वे श्रात्म यह समाचार पा बन्दनार्थ, ये अगणित नर नारी थे | परम ज्योति महावीर सुन पतित पावनी दिव्यध्वनि सबने निज कर्ण पवित्र किये । दी त्याग शत्रुता सबने हो श्र' बना शत्रु भी मित्र लिये || " स्कन्दक' ने भी तब समवशरणमें श्रा सोत्साह प्रवेश किया । 'हो चकित 'वीर' की शान्तिमयी छवि का दर्शन अनिमेष किया ||
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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