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इक्कीसवाँ सर्ग:
उपदेश श्रवण कर यथाशक्ति, सबने नियमादिक किये ग्रहण । सबकी श्रद्धा का केन्द्र बिन्दु, बन गये यहाँ भी महाश्रमण ।।
पर सुन उपदेश 'जयन्ती' केमन में विशेषतः हर्ष हुवा । उस धर्मशा के भावों में, अत्र और अधिक उत्कर्ष हुवा ।।
उसको अब प्रभु की शरण त्याग, गृह जाना नहीं सुहाता था । श्री 'वीर'-संघ में रहने मेंही अब कल्याण दिखाता था ।
अतएव आर्यिका के व्रत ले, अपने को और महान किया । सम्मिलित संघ में हुई तथा,
क्रमशः आत्मिक उत्थान किया ।। पश्चात् 'वीर' ने चल 'उत्तरकोशल' की अोर विहार किया । पथ में पावन उपदेशों से, अगणित जन का उद्धार किया ।।