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परम ज्योति महावीर
यों प्रभु के इन उपदेशों से परिवर्तित हृदय तुरन्त हुये। केवल न धर्म में पर समाजमें भी सुधार अत्यन्त हुये ॥
उनकी वाणो में शिवद सत्य हो सुन्दर स्वय झलकता था। सब मन्त्र मुग्ध हो सुनते थे उनको कुछ भी न खटकता था ।
जिनराज 'राजगृह' तजें नहीं, 'श्रेणिक' को ऐसा लगता था। पर समय किसी पर ध्यान न दे निज निश्चित गति से भगता था ।
यह चतुर्मास हो गया, देख--- 'श्रेणिक' ने मन कुछ म्लान किया। पर वीतराग ने ध्यान न दे निश्चित तिथि में प्रस्थान किया ।।
उन 'परम ज्योति' को अभी अन्यनगरों का तिमिर गलाना था ।
औ' ग्राम ग्राम के मानव को, मानव का धर्म सिखाना था ॥