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परम ज्योति महावीर.
कों से मुक्ति असम्भव है, ऐसा होता अाभास मुझे। अतएव मोक्ष की सत्ता में, होता न अभी विश्वास मुझे ।।
सम्बन्ध जीव औ' कर्मों कातो मैं अनादि से मान रहा । पर वह श्रात्मा के ही समान
होगा अनन्त, यह जान रहा । अब आप शीघ्र ही तो मेरी इस शंका को निमूल करें । संक्षिप्त रूप में ही मुझको अब सूचित मेरी भूल करें ॥"
प्रभु लगे बोलने मधु स्वर से, ज्यों ही 'प्रभास' द्विज मौन हुये। प्रभु के समक्ष अपनी शंका-- रख कर निराश भी कौन हुये ।।
प्रभुवर ने कहा-"अनादि वस्तुहोवे अनन्त, यह नियम नहीं । द्विजवर ! अनादि से मलिन स्वर्ण निर्मल करना क्या सुगम नहीं ?