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परम ज्योति महावीर
'पुण्यः पुण्येन' वचन से भी खण्डित होता है कर्म नहीं । द्विजवर ! गर्भित है पुनर्जन्म औ' कम तत्व का मर्म यहीं ।
इससे व्यवहारिक पुण्य पाप-- हैं तर्क युक्त, यह जानो तुम | एवं इस पुरुषातिवादको निराधार अब मानो तुम ॥"
यह सुनकर दूर 'अचलभ्राता' के मन का सब भ्रम जाल हुवा । प्रभुवर से दीक्षा लेने का मन में विचार तत्काल हुवा ॥
की ग्रहण प्रव्रज्या शिष्यों सँग, तन से परिधान हटाये सब । नवमें गणधर ये हुये, अतः
सबने निज शीश झुकाये अब !! परलोकवाद की सत्ता में
शंकित थे द्विज 'मेतार्य अभी। इससे इनके भी मन का यह भ्रम हरना था अनिवार्य अभी॥