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उन्नीसवाँ सर्ग
वैसा न वस्तुतः है, तुमकोजैसा कि समझ में आया यह । घटता न नियम जन्मान्तर में, जो तुमने यहाँ घटाया यह ॥
यह सत्य कि तिल से तिल ही तो होता सदैव उत्पन्न यहाँ । पर भाव कार्य औ' कारण का
शारीरिक हो सम्पन्न यहाँ ।। इस भाँति पुरुष की भी सन्तति होती है पुरुषाकार सदा । एवं पशुओं से होता है, पशुतन धारी अवतार सदा ॥
यदि यह नियम न होता, तोसब कुछ होता प्रतिकूल यहाँ । तरु-शास्त्रा जनतों मानव को,
नारी में खिलते फूल यहाँ ।। पर हे सुधर्म ! हर प्राणी काही जीव पृथक् औ' गात पृथक् । उत्तर शरीर की बात पृथक श्री' उत्तर भव की बात पृथक् ।।