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परम ज्योति महावीर यह सुनकर बोले द्विज 'सुधर्म, "मैं मान रहा हे सन्त ! यही । नर नर होता पशु पशु होता, मैं समझ रहा भगवन्त ! यही ॥
जलचर मर जल चर होता है, श्री' विहग मरण कर विहग यहाँ ॥ मर तुरग तुरग ही होता है,
श्रौ' उरग मरण का उरग यहाँ ॥ है क्यों कि नियम, निज कारणकेअनुरूप कार्य सब होते हैं। तिल से तिल सदा उपजते हैं, उत्पन्न नहीं जव होते हैं ।
बस इसी प्रकार भ्रमर को भी मर भ्रमर चाहिये होना फिर । एवं प्रत्येक मगर को भी
मर मगर चाहिये होना फिर ॥" यह सुन कर बोले 'महावीर'“मिथ्या यह ज्ञान तुम्हारा है। एकान्त वाद के कारण यह मिथ्या श्रद्धान तुम्हारा है।