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परम ज्योति महावीर
यह सुन भी प्रभु ने उन सुरियोंकी ओर उठाये नेत्र नहीं । कारण कि वासना से दूषितथे उनके अन्तस-क्षेत्र नहीं ।
उन पर निज रङ्ग चढ़ाने में, था अब भी विफल अनङ्ग हुवा । सुर भामिनियों के भ्र. भङ्गोसे भी प्रभु-ध्यान न भङ्ग हुवा ।।
उन पर उनकी चञ्चलता का, चल पाया रञ्च प्रपञ्च नहीं। बन सका राग का रङ्गस्थल, उनके मानस का मञ्च नहीं ।।
वे चिर उदार निज स्नेह दानके लिये बने थे महाकृपण । था यही हेतु जो इतने पर
भी मौन रहे वे महाश्रमण ।। पा उन्हें निरुत्तर उनने निज, माया से और उपाय किया। उनको उभारने हेतु रागउद्दीपक अध्यवसाय किया ।