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सोलहवाँ सर्ग
सुरपति समक्ष जा
प्रकट किया,
"था नाथ ! आपने ठीक कहा ।
वे 'महावीर' हैं महाधीर, हैं महातपी, निर्भीक
महा ||
मैं किन शब्दों में व्यक्त करूँ, उनकी धृति और निडरता को ?
मैं तो विमुग्ध हो गया देखकर उनकी ध्यान- प्रखरता को ||
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मैंने तप से च्युत उन पर प्रति धूल उड़ायी
थी,
मिट्टी भी बरसायी पानी की झड़ी लगायी थी ।
करने को,
थी ।
अहि, वृश्चिक, कर्णं खजूरों को, उनकी काया पर डाला था । पर नहीं अल्प भी भङ्ग हुवा, उनका वह ध्यान निराला था ||
सब व्यर्थ हुये, तप-च्युत करनेके मैंने जितने न किये |
वे आत्म ध्यान में लीन रहे,
ढ़ मेरु सदृश निज अङ्ग किये || "
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