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परम ज्योति महावीर
इतने पर भी उस नागराज, का साहस आज न हारा था । काटा तत्काल अँगूठे में, या विष से चरण पखारा था ।।
पर नहीं वीर ने नयन खोल उस अहि की ओर निहारा था । उनकी इस दृढ़ता से विषधर, पर चढ़ा क्रोध का पारा था ।।
फण पुनः चलाया कई बार, जो सहे उन्होंने शान्ति सहित । यों पूर्ण शक्ति व्यय कर भी अहि, कर सका न उनका ग्राज अहित ।।
पा नहीं सका जय महानाग उन 'महावीर' पर हिंसा से । पर 'महावीर' ने महानागपर जय की प्रास अहिंसा से ।।
यह अपनी प्रथम पराजय उस, विषधर को बनी पहेली अब । सोचा, यह कौन पुरुष ? जिसने ये मेरी चोटें झेली सब ॥