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चौदहवाँ सर्ग
वे उसी मार्ग से चल उसके बिल के समीप आसीन हुये । वह सर्प जहाँ पर रहता था, वे वहीं ध्यान में लीन हुये ॥
जब सर्प वहाँ पर आया तो, उसको ध्यानस्थित सन्त दिखे। उनके से निर्भय व्यक्ति उसे, थे नहीं अाज पर्यन्त दिखे ॥
निज राज्य-क्षेत्र में देख उन्हें, हो रहा उसे अति संशय था । यह पुरुष नहीं साधारण है, हो गया उसे यह निश्चय था ।।
फिर भी उस विषधर ने उनसेमानी न सहज ही हार स्वयं । विषमयी दृष्टि से देख उन्हें, छोड़ी विषमय फुकार स्वयं ।।
पर जाने क्यों अब आज बिफल उसका यह दृष्टि-प्रहार रहा । फेंकी फिर दृष्टि अनेक वार फल किन्तु वही हर बार रहा ।।