________________
३३०
अब तक अनेक ही बार यदपि, मेरे मन में यह द्वन्द चला ।
पर बिना आपको श्राज्ञा के, मैं नहीं कभी स्वच्छन्द चला ॥
जब
तक न तपस्या करता में, तब तक है मेरी कुशल नहीं । इससे इस मेरी अभिलाषा को आप करें अब विफल नहीं ||
दीक्षा लेने की
श्राज्ञा
पाने दें अत्मिक शान्ति मुझे |
श्रौ' सत्य, हिमा के द्वारा करने दें धार्मिक क्रान्ति मुझे ||
परम ज्योति महावीर
तप को ज्वाला
में सोने सा,
होने दें निर्मल शुद्ध मुझे । निर्वाण लाभ हित करने दें, आठ कर्मों से युद्ध मुके ॥”
'त्रिशला ' के नन्दन मौन पुनः; इन शब्दों के ही साथ हुये । उनके समझाने को उद्यत, अब 'कुण्डग्राम' के नाथ हुये ||