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बारहवाँ सर्ग
१°चिरकाल लोक में मुझको इन, कर्मों ने भ्रमण कराया है। सुर नर पशु नर्क चतुर्गति में, मुझको अब तक भटकाया है।
पर इन्हें खिरा अब देने पर, धरना होगा न शरीर पुनः। औ' नहीं मरण की चिन्ता से,
होगा मम चित्त अधीर पुनः ॥ देवेन्द्र नरेन्द्र नहीं बननाहोगा फिर बाँध किरीट कभी। बनना न नारकी भी होगा, होना न पड़ेगा कीट कभी ॥
५'अगणित ही बार यहाँ मुझको दुर्लभ मानव का रूप मिला । नारायण - पद भी प्राप्त हुवा,
चक्री पद चारु अनूप मिला ॥ पर मैंने न किया अब तक भी, रत्नत्रय का संकलन कभी। औ' आत्म बोध के अमृत से की दूर न भव की जलन कभी ।। १० लोकानुप्रेक्षा ११ बोधि दुर्लभनुप्रेक्षा