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परम ज्योति महावीर
मैं समिति, महाव्रत, इन्द्रिय-जय मन वचन कर्म के संयम से । कर्मों के प्रास्रव का संवर, प्रारम्भ करूँगा निज श्रम से ॥
अनुप्रेक्षा, धर्म, परीषद-जय, धारण करना उपयुक्त मुझे । कारण, ये ही तो कर्मों से,
कर सकते क्रमशः मुक्त मुझे ॥ संबर से होगा नहीं नयेकमा का मुझसे योग पुनः । पूर्जित कर्मों के क्षय का, करना होगा उद्योग पुनः ॥
अति घोर तपस्या करने से, हो जायेगा यह कार्य सरल । अविपाक निर्जरा होने से
भागेंगे सारे कर्म निकल । मैं एक एक कर अाठों ही कर्मों को शीघ्र खिराऊँगा । इनका अब तक अातिथ्य किया, अब इन्हें निकाल भगाऊँगा । ६. निर्जरानुप्रेक्षा।