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मानव ने निर्बल पशुओं के, शोणित से खेली होली है । बलिदान हुई मख – वेदी जीवित पशुओं की टोली है ||
में,
यह समझ दया से सिहर उठे, सोचा, मैं कैसा क्षत्रिय हूँ ? क्यों त्राण क्षतों का करने को मैं बना न अब तक सक्रिय हूँ ?
इस नव विचार के आते हो,
उनका अन्तस् संक्षब्ध
हुवा ॥
वैराग्य--कमल
-मधु पीने को,
उनका मन मधुकर लुब्ध हुवा ||
परम ज्योति महावीर
अब राजभवन द्रुत तजने मेंही दिखा स्वयं का क्षेम उन्हें । निस्सार लगा 'सिद्धार्थ' --- पिता' 'त्रिशला ' - माता का प्रेम उन्हें ॥
सत्र भौतिक बन्धन व्यर्थ लगे, उनको इतना था क्षोभ हुवा | प्रत्येक परिग्रह से मन पूर्णतया निर्लोभ हुवा ॥
उनका-