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परम ज्योति महावीर अपने चेतन का सब कल्मष, धो बनना चिन्मय शुद्ध मुझे।
और रज्य शत्रु से नहीं, श्रात्मरिपुओं से करना युद्ध मुझे ।।
इससे ले राज्य स्वयं पथ में, फैलाऊँगा मैं शूल नहीं । अपने ही हाथों मैं अपने
दृग में डालँगा धूल नहीं ॥" युवराज 'वीर' का निश्चय सुन, राजा को दुःख विशेष हुवा । रानी की इच्छा जैसा ही-, असफल उनका उद्देश हुवा ।।
अब किन्तु उपाय न था कोई, इससे धारण की समता ही। प्रभु-हृदय प्रभावित करने की, उनमें न रही थी क्षमता ही ।।
कारण, कुमार के कहने में, उनको यथेष्ट था सार दिखा । अतएव उन्हें अब और अधिक, समझाना भी निस्सार दिखा ।।