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म्यारहवाँ सर्ग
जीवन अशान्त कर देते हैं, उठ अगणित अन्तर्द्वन्द यहाँ । दुर्व्यसन सभी श्री दुर्गुण सब, जम कर रहते सानन्द यहाँ ||
निज स्वार्थ-सिद्धि ही करने में, लगती है सारी शक्ति यहाँ,
दारिद्रय, क्षुधा, निष्क्रियता की,
ये ही करते अभिव्यक्ति यहाँ ।।
राजसिंहासन
बनते हैं,
यां जनता को कटु अभिशाप यहाँ । राजा के हर अन्याय उसे, सहने पड़ते चुपचाप
यहाँ ॥
दूँ एक वाक्य में कह, तो यह - पापों की ही चटशाला है । इसके भीतर तम ही तम, बस, बाहर दिख रहा उजाला है |
राजमुकुट
अतएव अलंकृत से करना तात ! न शीश मुझे । इस 'कुण्ड ग्राम' का नहीं, अपितु - बनना जग का जगदीश मुझे ||
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