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दसवाँ सर्ग
यह वीतरागता 'त्रिशला' को जैसे ही सहसा भान हुई । वैसे ही उनकी आशा की, अधखिलीकली कुछ म्लान हुई ।
पर कहा मोह, ने माता का-- कहना अवश्य वह मानेगा। जननी की इच्छा के विरुद्ध, कोई भी कार्य न ठानेगा ॥
इस नव विचार के आते ही, मन फूला फिर न समाया था । तत्काल उन्होने महावीर,को पास बुला बैटाया था ।
पश्चात् कहा--"रह गयी शेष अब थोड़ी श्रायु हमारी है । अतएव चाहती कहना वह जो मैंने बात विचारी है।
यों तो चाहे कहती न इसे, पर मान रहा है मोह नहीं । यह मेरा कोमल अन्तस् भीतो मातृ-हृदय है लोह नहीं ॥