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दसवाँ सर्ग
जग दशा सोच यों 'सन्मति' में, सन्मति जग रही । अनूठी थी।
औ' उधर पुत्र के ; परिणय को, माता की ममता रूठी थो ॥
निज भावी पुत्र-वधू चुननेमें ही आता आनन्द उन्हें । सपने में दिखने लगते थे
मन के ये अन्तर्द्वन्द उन्हें ॥ निज सम्मुख राजमुताओं को देखा करतीं मुद्रित पलकें । कुछ की होती पतली कटि श्रो, कुछ की होती लग्बी अलकें ।
पर 'महाबीर' से गुप्त अभी, वे रखतीं ये व्यापार सभी । कारण, उनको ही करना था, इस पर कुछ और विचार अभी ।
निज सुता 'वीर' को देना, थेकह चुके अभी नर पाल कई ।
औ'नित्य सामने आती थी, चित्रावलि प्रातःकाल नयो ।