________________
२६६
देवी देवों तक के
में भी फैला अन्धेर
नाले
पुजते हैं नद रवि, शशि, पत्थर
स्वरूप-
यहाँ ।
पर्वत,
के ढेर यहाँ ।।
सर्वत्र मान है नर
पाती न समादर
औ' मात्र भोग
समझी जाती
यो वीर सोचते रहते थे, जाकर निर्जन में नित्य कहीं । देखो, अस्ताचल मध्य अधिक, अब टहरेगा श्रादित्य नहीं ||
-×
परम ज्योतिः सहाचीर
का ही,
नारी है ।
सामग्री ही,
है ।
बेचारी