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सातवाँ सर्ग
उन वीतराग का दर्शन करभी सबके मन में राग हुवा । उन महा भाग के भाग्योदय-- में सब का कुछ कुछ भाग हुवा ।।
ये गोद लिये 'सौधर्म नामके सुरपुर के सुरराज उन्हें । 'ईशान' स्वर्ग के इन्द्र स्वयंथे छत्र लगाये आज उन्हें ।।
सित चमर दुराते 'सानत्' औ, 'माहेन्द्र' स्वर्ग के राजा थे। थीं नाच रही किन्नरियाँ औ, गन्धर्व बजाते बाजा थे ।
मङ्गलमय गीतों को गातीं, चल रहीं सङ्ग इन्द्राणी थीं। सोल्लास निकलती सब देवोंके मुख से 'जय' 'जय' वाणी थी।
पर उधर कहाँ क्या होता है ? यह नहीं जानतीं रानी थीं। उनने क्या ? नहीं किसी ने भी, यह बात अभी तक जानी थी।