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अनुभव और प्रामाणिकता या विश्वसनीयता का मेल होता ही चाहिए । अब तक का समस्त विवेचन जो अन्यान्य स्त्रोतों पर आधारित है, केवल मसाधना में योग की भूमि को प्रस्तुत करने का एक प्रयत्न है। योग साधना स्वयं में एक सिटि है, किन्तु यहां हमने योग को मन्त्राराधना या मन्त्रसाधना का एक सशक्त एव अनिवार्य साधन माना है। हम उक्त योग स्वरूप, सिद्धान्त या प्रयोग पद्धति को माने या किसी अन्य स्त्रोत की बात को माने यह निर्विकार है कि मन, वाणी एवं कर्म-कायगत सम्पूर्ण नियन्त्रण के अभाव में महामन्त्र तो क्या, साधारण सासारिक जादू टोना भी सिद्ध न होगा!
योग साधना, ध्यान और जाप से हम अपनी आत्मा मे पवित्रता लाना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हम महामन्त्र से साक्षात्कार कर सके । इसी के लिए हम योग साधता रूपी साधन को अपनाते हैं। इससे हमारे शरीर मे शक्ति, वाणी मे संयम और मन में दृढ़ता और अचचलला आती है । शारीरिक स्वस्थता और मनगत निश्चलता से हम मन्त्रराधना मे लगेंगे तो अवश्य ही वीतराग अवस्था तक पहुंच मकेंगे। केवलज्ञान का साक्षात्कार कर सकेंगे-अपनी आत्मा की विशुद्धवस्था पा सकेगे । अन्तिम सत्य एक ही होता है और उसकी स्थिति भी एक ही होती है, उसके पाने के प्रकार और रास्ते अलगअलग हो सकते हैं। उत्कृष्ट योगी में लक्ष्य की महानता होती है, रास्तों का आग्रह नही।
निष्कर्ष रूप मे कहा जा सकता है--योग का अर्थ है जुडना । स्वय के द्वारा, स्वयं के लिए, स्वय मे (स्वात्मा में) जुडना ही योग है । अयोग या कुयोग (सासारिकता) से हटना और अपने मूल मे परम शान्तभाव से रहना योग है। वस्तुतः मन, वाणी और कर्म का समन्वय, नियन्त्रण एब उदात्तीकरण भी योग है । मन्त्रों के आराधन के लिए यह आधार शिला है। योगपूत व्यक्ति सहज ही मन्त्र से साक्षात्कार कर सकता है, जबकि योगहीन असयमी एवं अवसरवादी व्यक्ति सौ वर्षों के तप और योग से शताश भी मन्त्र-सान्निध्य प्राप्त नहीं करेगा। ससार के तुच्छ कार्यों की सफलता के लिए भी लोग जी-जान से एक तान होकर जुट ज। हैं-यह स्वय मे योग का भोतिक लघु रूप है। तब मन्त्रों के