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116 / महामन्त्र गमोकार : सायिक अन्वेषण महर्षियों ने अपने अनुभव सेमय-समय पर प्रकट किये हैं। श्री रामकृष्ण परमहस कुण्डलिनी उत्थान का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि कुछ झुनझुनी-सी पांव से उठकर सिर तक जाती है। सिर मे पहुचने के पूर्व तक तो होश रहता है, पर उसके सिर मे पहुचने पर मच्छा आ जाती है। आख, कान अपना कार्य नहीं करते । बोलना भी सभव नही होता। यहा एक विचित्र नि शब्दता एव समत्त्व की स्थिति उत्पन्न होती है। मैं और तू की स्थिति नही रहती। कुण्डलिनी जब तक गले में नही पहुचती, तब तक बोलना सभव है। जो झन-झन करती हुई शक्ति ऊपर चढती है, वह एक ही प्रकार की गति से ऊपर नही चढती। शास्त्रो में उसके पाच प्रकार हैं। 1 चीटी के समान ऊपर चढना। 2 मेढक के ममान दो-तीन छलाग जल्दी-जल्दी भरकर फिर बैठ जाना। 3 सर्प के समान वक्रगति से चलना। 4 पक्षी के समान ऊपर की ओर चलना। 5 बन्दर के समान उलाग भरकर सिर मे पहुचना। किसी ज्योति अथवा नाद का ध्यान करते-करते मन और प्राण उसमे लय हो जाए तो वह समाधि है। कुण्डलिनो-जागरण या चैतन्य स्फुरण ही योग का लक्ष्य होता है। कुण्डलिनी पूर्णतया जागृत होकर सहस्त्रार चक्र मे पहुच कर अन्नत समाधि मे परिणत हो जाती है।
ध्रुव सत्य तक पहुंचने के दो साधन हैं- एक है तर्क और दूसरा है अनुभव या साक्षात्कार । पदार्थमय जगत् भी स्थल और सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार का है। स्थल जगत को तो तर्क या विज्ञान द्वारा समझा जा सकता है, परन्तु सूक्ष्मातिमूक्ष्म पदार्थ की भीतरी परिस्थिनिया तक द्वारा स्पष्ट नहीं होती। प्रयोग भी असफल होते हैं । इन्द्रिय, मन और बुद्धि की सीमा समाप्त हो जाती है। योगियो, सन्तो और ऋषियो का चिर साधनापरक अनुभव वहा काम करता है। पदार्थसत्ता से परे भावजगत है । भावजगत के भो भीतर स्तर पर स्तर है। प्रकट मन, अर्धप्रकट मन और अप्रकट मन-ये तीन प्रमुख स्तर हमारे मन के हैं। मनोविज्ञान भी कही थक जाता है इन्हे समझने मे। सन्तों और योगियो का अनुभव कुछ ग्रन्थिया खोलता है, परन्तु सबका अनुभव एक-सा नहीं होता है अनुभूति की क्षमता भी सब की एक-सी नहीं होती। उस अनुभव का साधारणीकरण कैसे हो, यह भी एक समस्या रहेगो हो।