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रक्त, जिगर व दूसरे अगो से बनाई जाती हैं, जैसे कि मछली के तेल, पशुओ के जिगर व दूसरे अगों से तैयार किये हुए इजेक्शन इत्यादि । बछडो को चेचक निकाल कर उनके जख्मो के रस से चेचक का टीका बनाया जाता है। इसी प्रकार घोडे को साप से डसवाकर उसके जहरीले खून से सर्पदश के इलाज के लिए टीका बनाया जाता है। एक अहिंसक व्यक्ति को ऐसी औषधियो का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए।
इसके अतिरिक्त औषधियो पर अनुसन्धान करने वाले चिकित्सक खरगोशो, चूहो, बन्दरो, सूअरो, मेढको, मुर्गियों इत्यादि मूक प्राणियो पर अपने प्रयोग करते है। इन प्रयोगो से इन प्राणियो को अपार कष्ट होता है। प्रतिदिन हजारो पशु इस प्रकार के अनुसन्धानो के शिकार होते है। एक अहिसक व्यक्ति को इस प्रकार के निर्दयतापूर्ण अनुसन्धानो को कभी नही करना चाहिए।
कुछ व्यक्ति शाकाहारी होते हुए भी बीमारी की अवस्था मे पशुओ के अगो से बनी औषधिया तथा मास व अण्डे खाने लगते है। वे यह तर्क देते हैं कि जान है तो जहान है, हम अपनी खुशी से तो खा नही रहे है । डाक्टर ने हमे बतलाया है तो मजबूरी मे खा रहे हैं। परन्तु उनका यह तर्क उचित नहीं है। क्योकि मासाहार प्रत्येक दशा में बुरा है। फिर बुरा समय पड़ने पर ही तो मनुष्य की परीक्षा होती है । डाक्टर किसी को मास व अण्डे खाने को मजबूर नहीं करते। वे तो केवल सलाह भर देते हैं । यदि हमारी इच्छाशक्ति प्रबल है तो हम मास व अण्डे के बिना भी स्वस्थ हो सकते हैं। फिर, जो पोषक तत्व हमे मास व अण्डे से मिलते है उनसे अधिक पोषक तत्व हमे दूध, फल