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सुथरा अनाज ही खरीदना व बेचना चाहिए, जिसमे जीव न पडे हो । यदि हम कागज का व्यापार करे तो कागज को थोडे-थोडे समय के बाद उलटते-पलटते रहे, जिससे उसमे दीमक न लगे और हम हिंसा व हानि दोनो से बचे रहे। यदि हमको नौकरी भी करनी पडे तो ऐसी जगह पर करें, जहा कार्य करते समय हिंसा की सम्भावना कम से कम हो। साधुओं की अहिंसा (अहिंसा महाव्रत)
ऊपर बतलाई हुई चार प्रकार की हिंसा मे से सकल्पी हिंसा तो प्रत्येक व्यक्ति के लिए त्याज्य होती है। जहां तक आरम्भी व उद्योगी हिंसा का प्रश्न है, गृहत्यागी साधु को ऐसे कार्य करने ही नही पडते, इसलिए साधुओ को आरम्भी व उद्योगी हिंसा भी छोड़नी पडती है । रही विरोधी हिंसा की बात, तो साधुओ का किसी से बैर व विरोध नही होता। यदि कोई जान-बूझकर भी उनको कष्ट पहुचाता है तो वे उस कष्ट को, उस व्यक्ति के प्रति अपने मन में किसी प्रकार की भी दुर्भावना लाए बिना, समतापूर्वक सहन कर लेते है। वे तो यही विचार करते रहते हैं कि उनको जो भी कष्ट मिला है, वह उनके अपने ही द्वारा किये हुए पूर्व कर्मों के फलस्वरूप मिला है। जो व्यक्ति कष्ट दे रहा है वह तो केवल निमित्तमात्र है। इसी कारण उनके मन मे किसी के प्रति विरोध की भावना नहीं आती। - इस प्रकार साधु पूर्ण रूप से अहिंसा का पालन करते है। वे अपने पास मुलायम तन्तुओ की बनी हुई एक पीछी रखते हैं । जहा पर भी उनको बैठना या कोई वस्तु रखनी होती है वे उस स्थान को पीछी से साफ कर लेते हैं जिससे कि किसी जीव को कष्ट न पहुचे। वे सदैव हितकारी