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वचन बोलते हैं। भोजन भी अल्प मात्रा में ग्रहण करते हैं जिससे कि उनका शरीर चलता रहे। वे भोजन में स्वाद व रुचि नही लेते।
ऐसे गह-त्यागी व समताभावी साधु जब देखते हैं कि धर्म, समाज व देश पर कोई ऐसा सकट आया है जो उनके प्रयत्नो से दूर हो सकता है तो वे यथाशक्ति उसको दूर करने का प्रयत्न करते हैं। इसके कारण यदि उनको अपना मुनिपद भी छोडना पडे तो वह उसे भी छोडने मे सकोच नहीं करते। पर ऐसा वे केवल विशेष परिस्थितियो में और केवल धर्म, समाज व देश के हित के लिए ही करते हैं, अपनी निजी आवश्यकता और स्वार्थ के लिए कभी नही करते।
गृहस्थ की अहिंसा (अहिंसा अणुव्रत)
गृहस्थी के लिए सकल्पी हिंसा तो त्याज्य है ही, बाकी तीन प्रकार की हिंसा से भी उसे यथाशक्ति बचना चाहिए। ऐसा नही समझना चाहिए कि इन तीन प्रकार को हिंसा से उसे पाप नहीं होता। पाप तो अवश्य होता है, पर वह उस व्यक्ति की भावना के अनुरूप ही होता है। सावधानी पूर्वक कार्य करते हुए और हिसा के अवसरो से यथा सम्भव बचते हुए भी जो हिसा हो जाती है, उसका दोष कम लगता है।
हिंसा के विविध रूप कुछ व्यक्ति यह मानते हैं कि केवल किसी मनुष्य की हत्या कर देना ही हिंसा है, इसके अतिरिक्त और किसी भी कार्य से हिंसा नहीं होती। परन्तु यह केवल उनका भ्रम ही है। यदि हम हिंसा की परिभाषा और उसके विवेचन
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