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प्रत्येक प्राणी दुखी है, कोई कम कोई अधिक। कोई किसी एक कारण से दुखी है तो दूसरा किसी अन्य कारण से। अधिकाश मे ये दुख के कारण स्वयमेव ही आ खडे होते हैं । यह आवश्यक नहीं कि कोई अन्य व्यक्ति किसी को दुखी करे तभी वह दुखी हो। अधिकाशतया यह देखा जाता है कि सुख पाने के अनेक प्रयत्न करने पर भी मनुष्य सुखी नही हो पाता, जबकि कभी-कभी बिना विशेष प्रयत्न किये भी उसको सुख प्राप्त हो जाता है । उन्होने देखा कि ससार मे अनेक विषमताए और विडम्बनाए है। जैसे कि एक व्यक्ति बिना परिश्रम किये तथा दूसरो पर अन्याय व अत्याचार करते हुए भी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है, जबकि एक अन्य व्यक्ति परिश्रम व ईमानदारी से कार्य करता है और दूसरो का उपकार करने में लगा रहता है, फिर भी वह दुखी रहता है। क्या यह सुख-अन्याय व अत्याचार का ही परिणाम है ? क्या अन्याय व अत्याचार करने वाले व्यक्ति को कभी दण्ड नही मिलेगा? क्या परोपकार करने वाले व्यक्ति को अपने अच्छे कार्यों का कभी सुफल नहीं मिलेगा? इसी प्रकार कुछ बालक जन्म से ही दुखी, दरिद्री, अपग व रोगी होते हैं, जबकि कुछ अन्य बालक जन्म से ही स्वस्थ व सुखी रहते है। प्रश्न यह है कि पहले वाले बालको को किस अपराध का दण्ड मिल रहा है
और अन्य बालको को किस भलाई का पुरस्कार मिल रहा है? यह सब केवल घटनावश (By accident) ही तो नही हो रहा है। इन सब परिणामो का कुछ न कुछ कारण तो होना ही चाहिए। किन्तु जनसाधारण को उनमे कोई तर्कसम्मत औचित्य दिखाई नही पडता। भगवान महावीर ने इस समस्या पर गहन चिन्तन व मनन किया। जब