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होते हैं वे अधिकतर पेट की खातिर होते हैं। परन्तु यह बात मिथ्या है। ऊपर लिखे अनुसार यदि हम अपनी भोजन सम्बन्धी आदते सुधार लें तो कम-से-कम पेट भरने के लिये हमे कोई पाप नहीं करना पडे। हम ईमानदारी से ही अपने और अपने आश्रितो के भरण-पोषण योग्य कमा सकते हैं । पेट तो साधारण और सस्ते भोजन से भी भर सकता है और मूल्यवान पकवानो से भी पेट कभी नहीं कहता कि मुझे माति भाति के स्वादिष्ट भोजन खिलाओ । इसके विपरीत गरिष्ठ भोजन के सेवन से तो पेट को उसको पचाने के लिए अधिक परिश्रम करना पडता है । अधिकाश मे गरिष्ठ भोजन के सेवन से पेट खराब भी हो जाता है। वास्तविक दोषी तो हमारी तृष्णा और स्वाद लेने की लालसा है। यदि हम इनको अपने वश मे कर ले तो अपने जीवन निर्वाह के लिये हमे कोई भी अनुचित साधन न अपनाने पडें । ग्रास जब तक मुंह मे नही जाता तब तक हमे भोजन के स्वाद का पता नही चलता और ग्रास के गले से नीचे उतरने के पश्चात् भी भोजन के स्वाद का प्रश्न नही उठता। इस जिह्वा के क्षण भर के स्वाद के लिये ही हमे सब उचित व अनुचित कार्य करने पडते है । इसलिये यदि हमे सुख और शान्ति से जीना है तो हमे अपनी जिह्वा को अपने वश में रखना चाहिये । खाद्य पदार्थ खराब क्यो होते हैं ?
सारे ससार में बहुत ही सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीवाणु भरे हुए हैं, जिनको हम बैक्टीरिया (Bacteria) भी कह सकते हैं। अनुकूल परिस्थितिया मिलते ही यह बहुत शीघ्रता से बढते हैं। यदि हमारे खाद्य पदार्थों में इन बैक्टीरिया जीवों का प्रवेश हो जाये तो ये बहुत शीघ्रता से और बहुत बडी
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