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विषय-वासनाओं की और अपने अन्दर छिपी पशु वृत्ति की बलि दो। ऐसा करने से ही आत्मा पवित्र व उन्नत होगी और उसकी मुक्ति अर्थात् सच्चे सुख का मार्ग प्रशस्त होगा। इसके विपरीत रक्तपात से और आत्म-हत्या करने से कभी भी धर्म नही होता। यह तो हिंसा है और केवल हिंसा। ऐसे कार्यों को कभी धर्म नही माना जा सकता, क्योकि इनसे मनुष्य की सात्विकता और पवित्रता नष्ट हो जाती है।