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________________ ( ६७ ) मानता है। (२) मेरा कार्य ज्ञाता-दृष्टा है-इस बात को न जानकर उठना, चलना, बोलना आदि शरीर के कार्यो मे अपनापना मानता है। (३) बिनमूरत अर्थात आख-नाक-कान औदारिक आदि शरीरोरुप मेरी मूर्ति नही है-इस बात को न जानकर आखताक-कान औदारिक आदि शरीरोरुप अपनी मूर्ति मानता है। (४) चिन्मूरत अर्थात चैतन्य अरुपी असख्यात प्रदेशी मेरा एक आकार है-इस बात को न जानकर जड रुपी एक प्रदेशी पुद्गल के अनन्त आकारो मे अपनापना मानता है। (५) अनूप अर्थात् सर्वज्ञ स्वभावी ज्ञान पदार्थ होने से मुझ आत्मा ही अनुपम है-इस वात को न जानकर रुपया-पैसा, सोना-चादी आदि मे अनुपमपना मानता है। (६) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्त जीव है, उनकी चाल मुझ जीव से भिन्न है-इस बात को न जानकर मेरा बाप, मेरी मा, मेरा पति, मेरी धर्मपत्नी, मेरा गुरु, मेरा देव आदि पर जीवो मे अपनापना मानता है। (७) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्तानन्त पुद्गल है उनकी चाल मुझ जीव से भिन्न है-इस बात को न जानकर सोने का हार, मोटर, मकान दुकान आदि पुद्गल स्कन्धो मे अपनापना मानता है। (८) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व में असख्यात प्रदेशी एक धर्मद्रव्य है, उसकी चाल मुझ जीव से भिन्न है। परन्तु जब मै अपनी क्रियावती शक्ति से गमनरुप परिणमता हू तव धर्मद्रव्य निमित्त होता है-इस वात को न जानकर धर्मद्रव्य मुझे चलाता है ऐसा मानता है । (8) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे असख्यात प्रदेशी एक अधर्मद्रव्य है, उसकी चाल मुझ जीव से भिन्न है। परन्तु जव मैं अपनी क्रियावती शक्ति से चलकर स्थिर रुप परिणमता ह तवअ धर्मद्रव्य निमित्त होता हैइस बात को न जानकर अधर्मद्रव्य मुझे ठहराता है ऐसा मानता है। (१०) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्त प्रदेशी एक आकाशद्रव्य है, उसकी चाल मुझ जीव से भिन्न ह । मुझ आत्मा अनादिकाल से अपने असख्यात 'प्रदेशो मे रहता है, उसमे आकाश
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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