________________
." इस प्रकार प्रयोजनभूत सात तत्वो का दूसरे के कहने से उल्टा श्रद्धान गृहीत मिथ्यादर्शन है ॥४॥ .. इस प्रयोजनभूत सात-तत्वो का दूसरे के कहने से उल्टा ज्ञान गृहीत मिथ्याज्ञान है ॥५॥ इस प्रकार प्रयोजनभूत सात-तत्वो का दूसरे के कहने से उल्टा आचरण गृहीत मिथ्याचारित्र है॥६॥
प्र०६-जीवतत्त्व का स्वरुप अस्ति-नास्ति से छहढ़ाला की दूसरी ढाल मे क्या बताया है ?
उ०-"चेतन को है उपयोग रुप, बिनमूरत चिन्मूरत अनूप । पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनते न्यारी है जीव चाल । (१) मै ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी जीव तत्व हू । (२) मेरा कार्य ज्ञाता-दृष्टा है । (३) बिनमूरत अर्थात् आख-नाक-कान औदारिक आदि शरीरोरुप मेरी मूर्ति नही है। (४) चिन्मरत अर्थात चैतन्य अरुपी असख्यात प्रदेशी मेरा एक आकार है। (५) अनूप अर्थात् सर्वज्ञ स्वभावी ज्ञान पदार्थ होने से मुझ आत्मा ही अनुपम है। (६) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्त जीव द्रव्य है-इनकी चाल मुझ जीव से भिन्न ही है। (७) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्तानन्त पुद्गल द्रव्य है-इनकी चाल मुझ जीव से भिन्न ही है। (८) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे धर्म-अधर्मआकाग एकेक द्रव्य है-इनकी चाल मुझ जीव से भिन्न ही है। (६) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे लोक प्रमाण अमख्यात काल द्रव्य है-इनकी चाल मुझ जीव से भिन्न ही है।-ऐसा जीवतत्व का स्वरुप अस्ति-नास्ति से छहढाला की दूसरी ढाल मे बताया है।
प्र० १०-"ताको न जान, विपरीत मान करि, करें देह में निज पिछान" इस दोहे के अर्थ को स्पष्ट समझाइये ?
उ०-(१) मैं ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी जीवतत्व हू-इस बात को न जानकर कैलाशचन्द्र नाम रुप अनन्त पुद्गल द्रव्यो मे अपनापना