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मिथ्याचरित्र है (५) वर्तमान मे विशेषरूप से मनुष्यभव व जैनधर्मी होने पर भी कुगुरू-कुदेव-कुधर्म का उपदेश मानने से शरीर के मौजशौक से मोक्षसुख है-ऐसा अनादिकाल का श्रद्धान विशेष दढ होने से ऐसे श्रद्धान को गृहीत मिथ्यादर्शन बताया है। (६)वर्तमान मे विशेषरूप से मनुष्यभव व जैनधर्मी होने पर भी कुगुरू-कुदेव-कुधर्म का उपदेश मानने से शरीर के मौज-शौक से भी मोक्ष- सुख है- ऐसा अनादिकाल का ज्ञान विशेष दृढ होने से ऐसे आचरण को गृहीत मिथ्याज्ञान बताया है। (७) वर्तमान में विशेषरुप से मनुष्यभव व जैनधर्मी होने पर भी कुगुरु-कुदेव-कुधर्म का उपदेश मानने से शरीर के मौज-शौक मे भी मोक्षसुख है-ऐसा अनादिकाल का आचरण विशेष दृढ होने से ऐसे आचरण को गृहीत मिथ्याचारित्र बताया है।
प्र० १२७-मोक्ष मे आकुलता का सर्वथा अभाव है और पूर्ण स्वाधीन निराकुल सुख है। इस बात को भूलकर शरीर के मौजशौक मे भी मोक्ष सुख मानने को मान्यता रुप मोक्षतत्व सम्बन्धी जीव की भूलरुप अगृहीत-गृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कर पूर्ण सुखीपना कैसे प्रगट होवे । इसका उपाय छहढाला को दूसरी ढाल मे क्या बताया है ?
उ०-"चेतन को है उपयोगरूप, बिनमूरत चिन्मूरत अनूप । पुद्गल नभ धर्म-अधर्म काल, इनतै न्यारी है जीव चाल ॥" (१) मै ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी जीवतत्त्व हूँ। (२) मेरा कार्य ज्ञाता-दृष्टा है। आँख-नाक-कान औदारिकादि शरीरोरूप मेरी मूर्ति नहीं है। (४) चैतन्य अरूपी असख्यात प्रदेशी मेरा एक आकार है (५) सर्वज्ञ स्वभावी ज्ञान पदार्थ होने से मुझ आत्मा ही अनुपम है। (६) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्त जीव द्रव्य है। (७) अनन्तानन्त पुद्गल द्रव्य है। (८) धर्म-अधर्म-आकाश एकेक द्रव्य है। (8) लोक प्रमाण असख्यात काल द्रव्य है। इन सब द्रव्यो से मुझ निज आत्मा का किसी भी अपेक्षा किसी भी प्रकार का कर्ता-भोक्ता