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है। (३) मोह, राग-द्वेष आदि शुभाशुभ विकारीभाव आश्रभाव है। ये प्रत्यक्ष दुःख के देने वाले है और बन्ध के ही कारण है। इस बात को भूलकर आश्रवतत्त्व मे जो हिसादिरुप पापाश्रव है उन्हे हेय मानना और अहिसादिरूप पुण्याश्रव है उन्हे उपादेय जानना-ऐसा अनादिकाल का ज्ञान अगृहीत मिथ्याज्ञान है। (४) मोह,राग-द्वेष आदि शुभाशुभ विकारीभाव आश्रवभाव है। ये प्रत्यक्ष दु ख के देने वाले है और बन्ध के हो कारण है। इस बात को भूलकर आश्रवतत्त्व मे जो हिसादि पापाश्रव है उन्हे हेय मानना और अहिसादिरुप पुण्याश्रव है उन्हे उपादेवरुप आचरण-ऐसा अनादिकाल का आचरण अगृहीत मिथ्याचारित्र है। (५) वर्तमान में विशेष रूप से मनुष्यभव व जैनधर्मी होने पर भी कुगुरु-कुदेव-कुधर्म का उपदेश मानने से आश्रवतत्त्व मे जो हिंसादिरुप पापाश्रव है उन्हे हेय मानना और अहिसादिरुप पुण्याश्रव है उन्हे उपादेय मानने रुप अनादिकाल का श्रद्धान विशेष दृढ होने से ऐसे श्रद्धान को गृहीत मिथ्यादर्शन बताया है। (६) वर्तमान में विशेषरुप से मनुष्यभव व जैनधर्मी होने पर भी कुगुरु-कुदेव-कुधर्म का उपदेश मानने से आश्रव तत्त्व मे जो हिसादिरुप पापाश्रव है उन्हे हेय मानना और अहिसादि पुण्याश्रव है उन्हे उपादेय जानने रुप अनादिकाल का ज्ञान विशेष दृढ होने से ऐसे ज्ञान को गृहीत मिथ्याज्ञान बताया है। (७) वर्तमान मे विशेषरुप से मनुष्यभव व जैनधर्मी होने पर भी कुगुरु-कुदेवकुधर्म का उपदेश मानने से आश्रवतत्त्व मे जो हिसादिरुप पापाश्रव है उन्हे हेय मानना और अहिसादिरुप पुण्याश्रव है उन्हे उपादेय मानने रुप अनादिकाल का आचरण विशेष दृढ होने से ऐसे आचरण को गृहीत मिथ्याचारित्र बताया है।
प्र० ४७-मोह, राग-द्वेष आदि शुभाशुभ विकारीभाव आश्रवभाव है। ये प्रत्यक्ष दुःख के देने वाले है और बन्ध के ही कारण है। इस बात को भूलकर आश्रवतत्व वो हिसादिरुप पापाश्रव है उन्हे हेय