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प्र० ४४-हिसादिरुप पापश्रव हेय है और हिसादिरुप पुण्याश्रव उपादेय है-ऐस मोहरुपी महामदिरापान का फल छहढाला की प्रथम ढाल मे क्या बताया है ? ___ उ०-ऐसी मोहरुपी मदिरापान का फल चारो गतियो मे घूमकर निगोद जाना बताया है।
प्र० ४५-हिसादिरुप पापाश्रव हेय है और अहिसादिरूप पुण्याश्रव उपादेय है-ऐसी मान्यता का फल चारों गतियों मे घूमकर निगोद जाना क्यो बताया है।
उ०-(१) हिसादिरुप पापाश्रव और अहिमादिरुप पुण्याश्रव दोनो हेय है और दोनो ही बन्ध के कारण है। (२) परन्तु ऐसा न मानने के कारण इस खोटी मान्यता का फल चारो गतियो मे घूमकर निगोद जाना बताया है।
प्र० ४६-"रागादि प्रगट ये दु.ख देन, तिनहो को सेवत गिनत चैन ।' छहढाला की दूसरी ढाल मे इस दोहे मे आश्रवतत्व सम्बन्धी जीव की भूल बताने के पीछे क्या मर्म है ?
प्र-आश्रवतत्त्व सम्बन्धी जीव की भूल का स्पष्ट ज्ञान कराना है । मोह, राग-द्वेष आदि भाव आश्रवभाव है । ये प्रत्यक्ष दु ख के देने वाले है और वन्ध के ही कारण है इस बात को भूलकर आश्रव तत्त्व मे जो हिंसादिरुप पापाश्रव है उन्हे हेय मानना और अहिसादिरुप पुण्याश्रव है उन्हे उपादेय मानना-यह आश्रवतत्त्व सम्बन्धी जीव की भूल है । (२) मोह, राग-द्वेष आदि शुभाशुभ विकारीभाव आश्रवभाव है। ये प्रत्यक्ष दुख के देने वाले है और बन्ध के ही कारण है। इस बात को भूलकर आश्रव तत्त्व मे जो हिसादिरुप पापाश्रव है उन्हे हेय मानना और अहिंसादिरूप पुण्याश्रव हैं उन्हे उपादेय मानना-ऐसा अनादिकाल का श्रद्धान अगृहीत मिथ्यादर्शन