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________________ । २२ / और प्रतिकूलता से मै दुखी - ऐसी मान्यता को मोहरूपी महामदिरापान बताया है | प्र० ४ - शरीर की अनुकूलता से मै सुखी और प्रतिकूलता से मै दुःखी - ऐसी मोहरूपी महामदिरापान का फल छहढाला की प्रथम दाल मे क्या बताया है ? उ०- ऐसी मोहरूपी महामदिरापान का फल चारो गतियो मे घूमकर निगोद बताया है । प्र० ५ - शरीर की अनुकूलता से मै सुखी और प्रतिकूलता से मैं दुःखी - ऐसी मान्यता का फल चारो गतियो में घूमकर निगोद क्यो बताया है ? उ०- (१) सुख आत्मा के सुख गुण मे से आता है और दुख सुख गुण की विपरीत दगा है । (२) जड शरीरादि मे सुख या दुख की कोई पर्याय नही है । शरीर की अनुकूलता और प्रतिकूलता व्यवहारनय से ज्ञान का ज्ञेय है । ( ३ ) परन्तु अज्ञानी गरीर की अनुकूलता से मै सुखी और प्रतिकूलता से मै दुखी हूँ, ऐसी खोटी मान्यता से चारो गतियो मे घूमकर निमोद जाना बताया है । प्र० ६ - " मै सुखी दुःखी मै रंक राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव । मेरे सुततिय मे सबल दीन, बेरुप सुभग मूरख प्रवीण ॥ छहढाला की दूसरी ढाल के इस दोहे मे जीवतत्त्व सम्बन्धी जीव को भूल बताने के पीछे क्या मर्म है ? उ०- ( १ ) चेतन को है उपयोगरुप अर्थात मै ज्ञानदर्शन उपयोगमयी जीवतत्त्व हूँ और मेरा कार्य ज्ञाता - दृष्टा है । इस बात को भूलकर शरीर की अनुकूलता से मै सुखी और शरीर की प्रतिकूलता 1 से मैं दुखी मानना ही जीवतत्त्व सम्बन्धी जीव की भूल है । (२) मै
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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