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उसका स्वाद आवे तव उसकी मेत्रा की ऐसा कहा जावेगा । भगवान आत्मा चैतन्य स्वभाव से भरा हुआ है जिसने अमुख होकर पर्याय मे जाना उसने आत्मा की सेवा करी तभी जन कहला सकता है । यही बात समयसार गाथा ६ मे कही है-पर द्रव्य और पर भावों का लक्ष्य छोडकर आत्मा के ज्ञायक भाव की दृष्टि करे तो शुद्ध कहलाता है | कर्ता-कर्म अधिकार को ६६-७० की टीका मे भी कहा है कि जो आत्मा और ज्ञान मे पृथकपना नही देखता उसे सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र को प्राप्ति हो जाती है । (२) केवलज्ञान का निर्णय स्वभाव सन्मुस हुये बिना नही हो सकता । जिससे केव नज्ञान का निर्णय किया वही सम्यग्दृष्टि है ।
प्र० ४४- क्या द्रव्यकमं- नोकर्म दु सदायी या सुखदायी है ?
उत्तर - सर्वया नही है । मात्र जो परवस्तु मे अपना भाव जाता है चाहे वह शुभ भाव हो या अशुभ भाव हो वह ही ससार है ।
प्र० ४५ - क्या करें तो दुःख मिटे ?
उत्तर- मात्र विकारी भाव दुखरूप है पर वस्तु दुख रूप नही है - इतना जानते मानते ही अनादि की दु ख रूप दृष्टि का अभाव हो जाता है ।
प्र० ४६ - परवस्तु दुस सुखरुप नहीं है मात्र विकारी भाव दुख रुप है - ऐसा जानते - मानते ही दुख का अभाव कैसे हो जाता हैस्पष्ट समझाइये |
उतर - अरे भाई - जब परवस्तु सुखदायी - दुखदायी नही है ऐसा मानेगा तभी दृष्टि अपने त्रिकाली स्वभाव पर चली जावेगी और विकारी भाव उत्पन्न नही होगा और दशा प्रगट हो जावेगी | वास्तव मे विकारी भाव छोडना नही पडता है परन्तु जब स्वभाव पर दृष्टि आई तो विकारी भाव उत्पन्न ही नही हुआ तो वोलने मे आता है कि विकारी भाव छोडे ।